अमित भाई! स्वागत है आपका, इस चिट्ठा-संसार में।
वैसे तो साक्षात् आपसे एक बार मिला हूँ; या कि दो बार, पर पहली मुलाकात के बारे में बाद में बाद में ही पता चला ;) पर शायद पहली मुलाकात ही अब तक की दोस्ती का आधार है, शायद---बहुत कुछ सीखा है आपसे कह सकता हूँ इस दौरान--- वो बंगलौर की यादें, आगरे वाले के समोसे और एम॰ जी॰ रोड का टा्इम पास, सब याद है। और हाँ हम दोनों और हम जैसे ना जाने कितने एक ही नाव के सवार साथी हैं, वो है, शोध की नाव, पी॰ एच॰ डी॰ की नाव---
शायद लोग सही कहते हैं कि एक शोधार्थी की हमेशा दो शादियाँ होती है और उसके लिये उसको धर्म नही बदलना पङता (वो आंगल भाषा में क्या कहते हैं, "just kidding"). पी॰ एच॰ डी॰ पहली होती है, असली वाली शादी की तरह एक लड्डू है ये भी, "जो खाये वो पछताये, जो ना खाये ललचाये"--- जिसको यह डिग्री मिले वो कम से कम डिग्री मिलने के बाद तो खुश होता ही है, अगर ४-५ साल ना भी हो तो। और जो यह डिग्री ना ले पाये तो बस इक ही बात रहती है - पी॰ एच॰ डी॰- पी॰ एच॰ डी॰- पी॰ एच॰ डी॰। यह बात मैं अपने अलग अलग दोस्तों के ई-पत्र व्यवहार से आसानी से निकाल सकता हूँ। तो हम और आप यह लड्डू खा रहे हैं, पहला लड्डू- और अभी तो बडा वाला भी लड्डू खाना है यह जानते हुये भी कि कहीन और ज्यादा ना पछताना पडे, शायद इसी कारण पी॰ एच॰ डी॰ के लड्डू का पछताना महसूस ही नहीं होता ;)।
एक छोटा सा संदेश या कहूँ कि मन की बात कहना चाहूंगा सारे शोधार्थी दोस्तों के लिये (आपके विचार चाहूँगा)- मुझे लगता है कि जैसे खाने के बाद मिठाई खाने का प्रचलन है, पी॰ एच॰ डी॰ के लड्डू को बस एक मिठाई समझ कर खाना चाहिये। जीवन चलते रहना चाहिये, इक सामान्य जीवन की तरह। समय है, बहुत है, २४ घंटे हैं ना भाई-- तो केवल यह समझकर कि "भाई पी॰ एच॰ डी॰ कर रहे है न", दुनिया से दूर न रहें, बल्कि ये तो दुनिया के और करीब आने का माध्यम बनना चाहिये। शायद कुछ ज्यादा और समझ से अधिक लिख रहा हूँ, पर शायद चिट्ठा इसी का नाम है, क्यों अमित साब?
देखा अपनी बात मैं खुद ही नहीं अपना रहा- शाम की चाय के समय पी॰ एच॰ डी॰ की बात- ये तो डेजेर्ट पर सोचने वाली बात है ;) मेरे हिसाब से, शोध की बात यहीं तक, बाकी बाद में, शायद शाम के खाने के बाद। फिर मिलेंगे।
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6 comments:
संकेत जी और अमित जी, आप दोनो मित्रों का हिन्दी चिट्ठा जगत मे हार्दिक स्वागत है ।
अनुनाद
प्रिय अनुनाद जी,
बहुत बहुत धन्यवाद आपकी टिप्पणी का। आशा है आगे भी आपसे सम्पर्क बना रहेगा।
संकेत
संकेत बाबूजी ,
आपने तो मुझे पुरानी सभी बातें याद दिला दी । वाकई में आपके साथ बिताए वो २-४ दिन ही शायद बंगलौर में मेरे सबसे अच्छे दिन थे ।
मैं तो आपके आने का बार-बार इंतजार करता हूँ । आप फिर से आ जाओ और एक बार फिर से मजा आ जाए । सही भाई, उन दिनों बहुत मजा आया था । मैं अब भी आपके डिजीटल कैमरे के फोटो देखता हूँ तो उन दिनों की बहुत याद आती है ।
वैसे आपको बता दूँ , अनुनाद जी तो हिन्दी याहू समूह पर बहुत ही सक्रिय सदस्य हैं । और अब तो आप भी समूह में शामिल हो गये हैं ।
हम सभी आपके विचारों को पढना चाहेंगे । मैं आपको याहू समूह में नियमित रूप से लिखने के लिये आमंत्रित करता हूँ ।
आपका
अमित
स्वागत है आपका चिट्ठाजगत में।
प्रिय आशीष जी,
बहुत बहुत धन्यवाद, आपका चिट्ठा "मेरा चिट्ठा " पढा। सभी से जो प्रोत्साहन मिल रहा है, हम जैसे नये लोगों के लिये बहुत बङी बात है। आपके चिट्ठे में न केवल आम आदमी की सच्चाई है, बल्कि एक तर्क के साथ जीवन के पहलुऒं को बताया गया है। आपके आगे के लेखों की प्रतीक्षा रहेगी।
अमित भाई,
क्या बात है, आपने मुझे nostalgic (कृपया कोई हिन्दी बताये इस शब्द की) कर दिया। आप बस आवाज दीजिये और ब्रज का ये ग्वाला आपके पास हाजिर। वैसे एडमंटन आने के बारे में क्या ख्याल है? डिजीटल कैमरे (हिन्दी?) अब बूढा हो चला है (सिर्फ चार साल में? फिर तो मैं न जाने कब का???), पर हीरा है अब भी (old is gold से भी आगे)। इस साल फिर से वो दिन आयेंगे, बंगलौर न सही - आगरे के पंछी या देहरादून के तिब्बती मार्केट की चाट के साथ।
याहू समूह पर अनुनाद जी व अन्य लोगों के अति उत्तम विचार पढे, अच्छा लगा, अपने विचार जल्दी ही भेजूंगा।
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