Sunday, July 31, 2005

प्रेमचंद साब का जन्मदिन

एक महान लेखक या कहें कि एक आम आदमी के रोजमर्रा की जिन्दगी से हमेशा मुखातिब रहने वाले प्रेमचंद जी को फिर से याद कर रहे हैं हम--- उनके १२५वें जन्मदिन पर। मुझे लगता है कि उनकी कहानियाँ ऐसी कहानियाँ हैं जो एक सामान्य आदमी आसानी से समझ सकता है। बचपन से याद है कि हम कर्मभूमि, निर्मला देखा करते थे। छोटे थे हम लोग, फिर भी रात ८॰४० के समाचार के बाद इंतजार रहता था। वो भी क्या दिन थे। इसका श्रेय प्रेमचंद जी को ही जाता है। शायद सारे धारावाहिक ही मध्यम परिवारों पर केन्द्रित थे--- न कि आज की तरह, समझ नहीं आता कि आखिर आज के सारे कथित औपेरा किस के लिये बने हैं?

Saturday, July 23, 2005

लंदन

बस, खाली बैठा था तो सोचा कि कुछ लिख दूँ । आज सप्ताहांत का दिन था कुछ खास नहीं हुआ । एसे ही बीत गया ।

रीडिफ पर पढ रहा था कि लंदन में जो आदमी पुलिस ने मारा था वो कोई आम आदमी ही था । मतलब, लंदन पुलिस भी गलतियाँ करती है । किन्तु यह मेरे लिए बहुत ही आश्चर्यजनक बात है कि आतंकवादियों के हौसले इतने बुलंद हो गये हैं कि वो अब लंदन जैसे सुरक्षित (मुझे लगता है कि लंदन सुरक्षित था ) शहरों में भी खुलेआम विस्फोट करते हैं । हिन्दुस्तान जैसे देश तो आतंकवाद से जूझ ही रहे हैं और आतंकवादी आए दिन कुछ न कुछ गुल खिलाते ही रहते हैं । यदि इन विस्फोटों की प्रतिक्रया ब्रिटेन भी अमेरिका की तरह ही करता है तो उसे पाकिस्तान पर हमला बोल देना चाहिए जैसा अमेरिका ने अफगानिस्तान पर किया था । यह तो साबित हो ही चुका है कि हमलावरों ने पाकिस्तान में जाकर मदरसों मे जिहाद की शिक्षा पाई थी (मुझे पता नहीं इसे शिक्षा क्यों कहा जाना चाहिए) । यदि अमेरिका और अन्य देश आतंकवाद को जङ से खतम करना चाहते हैं तो उन्हें पाकिस्तान पर लगाम कसनी ही होगी । पाकिस्तानी मदरसों का आतंकवाद फैलाने में बङा हाथ हो सकता है ।

किन्तु अमेरिका हमेशा से ही दोहरी नीति करता आया है । वो एशिया में अपनी पैठ बनाने के लिए पाकिस्तान की जमीन चाहता है । और इसीलिए वो हमेशा से पाकिस्तान का हिमायती रहा है ।

चिठ्ठा

संकेत साहब ,

हमारे चिठ्ठे को बहुत लोगों ने पढा है । कई लोगों ने तो टिप्पणी भी की है । देख कर अच्छा लगा। मुझे समझ यह नहीं आया कि लोगों को हमारे चिठ्ठे के बारे में पता कैसे चला?

मैं दूसरे लोगों के चिठ्ठे कैसे पढ सकता हूँ? क्या कहीं पर चिठ्ठे वर्गीकृत करके जाल पर रखे गये हैं?

अमित

Friday, July 22, 2005

शोध का लड्डू

संकेत साब,

शोध का लड्डू , जैसा आपने कहा, जो खाए वो भी पछताए और जो न खाए वो भी ः) लेकिन चलता है यार , किया कुछ भी नहीं किया जा सकता ।

जो कुछ ऊपर वाले ने लिख दिया है वो तो होना ही है । तो फिर मजे क्यों न किए जाए । मुझे लगता है कि कुछ भी हो जाए हमें मजे में ही रहना चाहिए । तभी जिन्दगी बढिया है । आपका क्या कहना है इस विषय पर?

अमित

Thursday, July 21, 2005

जिन्दगी के दो लड्डू - क्या ख्याल है अमित भाई?

अमित भाई! स्वागत है आपका, इस चिट्ठा-संसार में।

वैसे तो साक्षात् आपसे एक बार मिला हूँ; या कि दो बार, पर पहली मुलाकात के बारे में बाद में बाद में ही पता चला ;) पर शायद पहली मुलाकात ही अब तक की दोस्ती का आधार है, शायद---बहुत कुछ सीखा है आपसे कह सकता हूँ इस दौरान--- वो बंगलौर की यादें, आगरे वाले के समोसे और एम॰ जी॰ रोड का टा्इम पास, सब याद है। और हाँ हम दोनों और हम जैसे ना जाने कितने एक ही नाव के सवार साथी हैं, वो है, शोध की नाव, पी॰ एच॰ डी॰ की नाव---

शायद लोग सही कहते हैं कि एक शोधार्थी की हमेशा दो शादियाँ होती है और उसके लिये उसको धर्म नही बदलना पङता (वो आंगल भाषा में क्या कहते हैं, "just kidding"). पी॰ एच॰ डी॰ पहली होती है, असली वाली शादी की तरह एक लड्डू है ये भी, "जो खाये वो पछताये, जो ना खाये ललचाये"--- जिसको यह डिग्री मिले वो कम से कम डिग्री मिलने के बाद तो खुश होता ही है, अगर ४-५ साल ना भी हो तो। और जो यह डिग्री ना ले पाये तो बस इक ही बात रहती है - पी॰ एच॰ डी॰- पी॰ एच॰ डी॰- पी॰ एच॰ डी॰। यह बात मैं अपने अलग अलग दोस्तों के ई-पत्र व्यवहार से आसानी से निकाल सकता हूँ। तो हम और आप यह लड्डू खा रहे हैं, पहला लड्डू- और अभी तो बडा वाला भी लड्डू खाना है यह जानते हुये भी कि कहीन और ज्यादा ना पछताना पडे, शायद इसी कारण पी॰ एच॰ डी॰ के लड्डू का पछताना महसूस ही नहीं होता ;)।

एक छोटा सा संदेश या कहूँ कि मन की बात कहना चाहूंगा सारे शोधार्थी दोस्तों के लिये (आपके विचार चाहूँगा)- मुझे लगता है कि जैसे खाने के बाद मिठाई खाने का प्रचलन है, पी॰ एच॰ डी॰ के लड्डू को बस एक मिठाई समझ कर खाना चाहिये। जीवन चलते रहना चाहिये, इक सामान्य जीवन की तरह। समय है, बहुत है, २४ घंटे हैं ना भाई-- तो केवल यह समझकर कि "भाई पी॰ एच॰ डी॰ कर रहे है न", दुनिया से दूर न रहें, बल्कि ये तो दुनिया के और करीब आने का माध्यम बनना चाहिये। शायद कुछ ज्यादा और समझ से अधिक लिख रहा हूँ, पर शायद चिट्ठा इसी का नाम है, क्यों अमित साब?

देखा अपनी बात मैं खुद ही नहीं अपना रहा- शाम की चाय के समय पी॰ एच॰ डी॰ की बात- ये तो डेजेर्ट पर सोचने वाली बात है ;) मेरे हिसाब से, शोध की बात यहीं तक, बाकी बाद में, शायद शाम के खाने के बाद। फिर मिलेंगे।

हिन्दी

यह मेरा पहला चिठ्ठा है । अभी तो मैं चिठ्ठाकारी के बारे में कुछ जानता भी नहीं हूँ । मुझे पहले तो बहुत संकोच हुआ लेकिन फिर सोचा एक ना एक दिन तो संकोच दूर करना ही होगा । मुझे इसके लिए संकेत जी को धन्यवाद देना चाहिए जिन्होने मुझे इसके लिए प्रेरित किया । चीनी भाषा में एक कहावत है, १००० मील की यात्रा भी पहले कदम से ही शुरू होती है । तो इसी बात को ध्यान में रखते हुए मैं इस चिठ्ठा संसार में कदम रखता हूँ । यह केवल एक प्रयोग है देखना चाहता हूँ कि यह जाल पर कैसे पोस्ट होता है और फिर कैसा लगता है?

अमित

Wednesday, July 20, 2005

३० साल पहले की वो रात (जून २६, १९७५)

देश में आपातकाल - बहुत सुना है, बडों से - दादाजी, पिताजी --- इस साल उस आपातकाल की तीसवी सालगिरह है। जून २६, १९७५ से मार्च २१, १९७७ का समय २१ महीने, क्या सही था (थोडा मुश्किल होगा हम में से बहुत से पाठकों को सही का पता लगाना) क्या गलत? वैसे खुद मैं भाग्यशाली हूँ कि आपातकाल के बाद जन्म हुआ। और जानकारी तथा अनेक सम्मानित व्यक्तियों के विचार यहां पठें -

Sunday, July 17, 2005

"मंगल पाण्डेय - राइजिंग स्टार" संगीत - एक दृष्टिकोण


होली आयी रंग फूट पङे
ये छलक छलक - वो ढलक ढलक
फिर बाजे घुंघरू ढोल बङे
ये छलक छलक -वो ढमक ढमक
सब निकले हैं पी पीके घङे
ये लपक लपक - वो धुमक धुमक
छम छम नाचे परियों की धुनें
ये धिरक धिरक - वो मटक मटक

ये छलक छलक - वो ढलक ढलक
ये छलक छलक - वो छमक छमक
ये लपक लपक - वो धुमक धुमक
ये धिरक धिरक - वो मटक मटक
एक और उदाहरण है अख्तर साब के जादुई शब्दों का-
"चांदी की थाल से लेके गुलाल
अब राधा से खेलेंगे होली मुरारी
राधा भी तटखट है-
पलटी वो झटपट है
मारी कन्हैया को है पिचकारी

देखने वाले तो दंग हुये हैं
के होली में दोनों संग हुये हैं
तो राधा कान्हा इक संग हुये हैं

कौन है राधा कौन है कान्हा
कौन ये समझा कौन ये जाना"
आगे का कमाल पढिये -
"होली में जो सजनी से नैन लङे
थामी है कलाई कि बात बढे
तीर से जैसे मेरे मन में गढे
तेरी ये नजरिया जो मुझ पर पङे
जो ये रास रचे
जो ये धूम मचे
कोई कैसे बचे"

एक सफ़र अमीन सयानी के साथ

यूं तो संगीत के साथ हमेशा बंधे रहने का मन करता है, आख़िर एक प्‍यार है, एहसास है, जो एक मजबूत डोर की तरह एक अजीब से बंधन से बाँधे रख़ता है। अगर सही कहूँ तो न जाने कब से एक ख्वाहिश है मन में - रेडियो पर कोई कार्यक्रम प्रस्तुत करने की, और मुझे यह कहने में बिल्कुल भी संकोच नहीं है कि यह ख्वाहिश "हूँ हूँ हूँ" एक ना भूलने वाले सफर के सिपहलेसलहार अमीन सयानी साहब के कारण आयी। अपूर्ण...